हताश हम तभी हुए
जब गणित ने हमारे साथ
लुक्का-चुप्पी खेली
समाज हमें कभी हताश
ना कर पाई
बस बर्दाश्त की सीमा
पार करते गए
बेशर्मी में भी है दम
राह चलते ज़िन्दगी ने सिखाया
दीवानगी और जुनून से
इश्क़ कर डाला
आपकी शायरी का क्या कहना
लव्ज़ों की बौछार
हमें प्रेरित करने की महज़
एक नाकाम कोशिश
इस कान से सुने
और उस कान से निकाला हमने
हताश होना हमने सीखा ही नहीं
मेरे मौला ने मेरे समय पर
पाबंदी जो लगाई
रहने दीजिये अपने सलाह मशवरे
बेड़ियों सी महसूस होती हैं
यू मेरा हक़ छीनने न दूँगी मैं
आप माने या ना माने
जननी तो मैं हूँ ही
लेकिन जनि हूँ ख़ुदा कि बंधी मैं भी
छायाचित्र साभार : आरज़ू कावेरी सेन